|
२२ दिसंबर, १९७१
श्रीअरविदका एक पत्र मुझे पढ़कर सुनाया गया है जिसमें वे कहते है कि अतिमनके यहां प्रतिष्ठित होनेके लिये (उन्होंने देखा था कि अतिमन उनके अंदर आया और फिर वापिस चला गया, वह फिरसे आया और फिर वापिस चला गया -- वह स्थायी न था), और उन्होंने कहा कि उसके यहां स्थायी रूपसे प्रतिष्ठित होनेके लिये उसे भौतिक मनमें प्रविष्ट होना और वहीं बस जाना चाहिये । ' मेरे अंदर महीनोंसे यही कार्य हो रहा है : मनको खींच लिया गया है और भौतिक मनने उसका स्थान लिया है और मैंने अभी कुछ समय पहले देखा है कि यह... ( मै तुमसे कह
१इस बातचीतके प्रकाशनके ममय माताजीने १५ जनवरी, १९७२ को यह और जोड़ दिया :
यह अनुभूति अधिकाधिक स्थायी होती जा रही है -- एक बार यह और दूसरी बार वह । यह बहुत तीव्र हों गयी है और साथ ही यह ज्ञान (माताजी तर्जनी दिखाती है) : ''यह 'विजय' प्राप्त करनेका समय है । '' यह चैत्यसे और उसके द्वारा और ऊपरसे आता है... ''डटे रहो, 'विजय' प्राप्त करनेका यही समय है ।''
१हमें ठीक पता नहीं कि माताजी किस पत्रकी बात कह रही है, शायद वह इस प्रकारका कोई पत्र होगा :
''शरीरका एक धुंधला मन भी है, स्वयं कोषाणुओं, कणिकाओं और अणुओंका मन । जर्मन जड़वादी हेगलने कही परमाणुकी इच्छाकी बात कही है और आधुनिक विज्ञान विद्युदणुओंकी अनगिनत क्रियाओंका अध्ययन करते हुए इस हदतक आ चुका है कि यह कोई अलंकार नहीं है, बल्कि एक गुप्त सद्वस्तुदुरा फेंकी गयी एक छाया है । यह शरीर-मन बहुत गोचर सत्य है; वह अपने धुंधलापने, भूतकालीन क्रियाओंके साथ यांत्रिक रूपसे
रही थी कि वह हर एक चीजको एक और ही तरहसे देख रहा है और चीजोंके साथ उसका संबंध भिन्न है), मैंने देखा है कि यह भौतिक मन, वह मन, जो शरीरमें है, ज्यादा विस्तृत हो गया है, वह चीजोंके बारेमें सार्वभौम दृष्टि रखता है और उसके देखनेका पूरा तरीका ही एकदम अलग है । मैंने उसे देखा, यह वही है : वहां अतिमन कार्यरत है । मैं असाधारण धडियोंमेंसे गुजर रही हूं ।
अब जो हो रहा है उसमें केवल वस्तुएं प्रतिरोध करती हैं -- ऐसा लगता है (मै तुम्हें पहले बतला चुकी हू), मानों हर क्षण (और यह चीज क्षण ज्यादा-ज्यादा जोर पकडू रही है), हर क्षण : क्या तुम्हें जीवन चाहिये, क्या तुम्हें मरण चाहिये; क्या तुम्हें जीवन चाहिये, क्या तुम्हें मरण चाहिये... और ऐसा ही होता है । और तब जीवन, यानी, परम प्रभुके साथ ऐक्य और चेतना, एक एकदम नयी चेतना आती है । और इस तरफ या उस तरफ (माताजी इस तरफ, उस तरफ झुकती हैं), लेकिन कल या परसों, पता नहीं, अचानक शरीरने कहा : कहां! यह खतम -- मुझे जीवन चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये । और तबसे चीजें ज्यादा अच्छी होती जा रहीं है ।
जो हो रहा है उसका उल्लेख करनेके लिये पोथियोंकी जरूरत होगी... । यह असाधारण रूपसे मजेदार और एकदम नया है । एकदम नया ।
(माताजी अपने अंदर चली जाती हैं)
भौतिक मृत्युके कारण अवचेतना पराजयवादी है । हां, अवचेतनाको लगता है कि चाहे कैसी मी प्रगति क्यों न कर ली हो, चाहे कैसा भी प्रयास क्यों न हो, सबका अंत हमेशा यही होगा, क्योंकि आजतक हमेशा, इसी तरह अंत होता आया है । तो अब जो काम किया जा रहा है वह है अवचेतनामें श्रद्धाको, रूपांतरकी निश्चितिको प्रविष्ट कराना । और यह क्षण-क्षणका संघर्ष है ।
चिपके रहने, सरल विस्मृति और नृतनको अस्वीकार करनेके कारण अति- मनकी 'शक्ति' के प्रवेश और शरीरके क्रिया-कलापके रूपांतरमें मुख्य बाधकोंमेंसे एक है । इसके विपरीत एक बार यह सफल रूपसे बदल जाय तो वह 'भौतिक प्रकृति' मे अतिमानसिक 'ज्योति' के स्थायीकरणके लिये सबसे अधिक मूल्यवान् यंत्रोंमेंसे एक होगा ।''
(श्रीअरविदके पत्र, भाग १)
२५७ |